Friday 23 December 2016

सुंकी घाटी का टूटा दिल-

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सुंकी घाटी का टूटा दिल-

बिन आँखों के भी अश्क निकलते हैं
पत्थरों से पुछा तो जवाब आया
हम बिना दिल के भी धङकते है
बिन आँखों के भी अश्क निकलते हैं,
समझते हैं चलने वाले समझ कर
और करे भी क्या बुझ कर
चकाचौंध लाइट में
भागती भगाती जिन्दगी में
इंसान को इंसान की फिकर नहीं
तो फिर हम पत्थर को कौन समझेगा
पत्थरों से पुछा तो जवाब आया
कट जाते हैं हम
बन जाते हैं घाटी
बन के टुकड़े देते हैं राह बांटी
सुंकी के घाटियों की यह पुकार
उस रात दिखी घंटों बार - बार
हल्की बूंद की बारिश से
आंसुओं की अविरल लकीरें
दर्द बयां करती धीरे-धीरे
टूटे फूटे वह पत्थर
उजङे चिथङे मानव के तन जैसे
दिख रहे बस के प्रकाश में
और मन को कुरेदते हुये
जैसे किसी खास अपने का जख्म हो,
दिल से भरम मिट गया उस दिन
की पत्थरों के दिल नहीं होते
क्योंकि उन पत्थरों से जवाब आया
बिन आँखों के भी अश्क निकलते हैं
हम बिना दिल के भी धङकते है
बिन आँखों के भी अश्क निकलते हैं.

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